IMF की फंडिंग के बाद पाकिस्तान की आक्रामकता और भारत की अग्निपरीक्षा

क्या अब युद्ध की राह ही बची है?

कुछ समय पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रूस-यूक्रेन युद्ध में मध्यस्थता की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहे थे। वे वैश्विक शांति का संदेश लेकर यूरोप और रूस के बीच पुल बनने की बात कर रहे थे। लेकिन आज स्थिति उलटी हो चुकी है — अब खुद भारत के दरवाजे पर जंग की दस्तक है।

पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने खुलेआम ऐलान कर दिया है कि अब युद्ध ही एकमात्र विकल्प है। वहीं पाकिस्तान को IMF से लगभग ₹20,000 करोड़ की फंडिंग भी मिल गई है। यह राशि पाकिस्तान के लिये केवल आर्थिक सहारा नहीं, बल्कि मानसिक ऊर्जा और युद्ध की तैयारी को मजबूती देने वाला ईंधन भी है। क्या इस सहायता से पाकिस्तान की फौजी हिम्मत और उसकी साजिशों को नया पंख नहीं मिला?

अब सवाल ये है — भारत क्या करेगा?

क्या भारत फिर से संयम का रास्ता अपनाएगा या जैसे को तैसा की नीति पर चलेगा? क्या कोई देश अब भारत और पाकिस्तान के बीच शांति के लिए मध्यस्थता करेगा? अमेरिका फिलहाल किनारा कर चुका है, वर्ल्ड बैंक भी सिंधु जल संधि में हस्तक्षेप से इनकार कर चुका है और सऊदी अरब सिर्फ ‘शांति की अपील’ करके अपनी भूमिका निभा चुका है।

क्या यह संघर्ष यूक्रेन-रूस युद्ध की तरह लंबा खिंच जाएगा?

रूस और यूक्रेन की लड़ाई ने हमें सिखाया कि जंग कभी तात्कालिक समाधान नहीं देती — वह सिर्फ लंबा असंतुलन देती है। शुरुआत में सब सोचते हैं कि “यह 72 घंटे की लड़ाई है” — लेकिन जैसे ही बंदूकें गरजने लगती हैं, वक्त ठहर जाता है। फिर महीनों तक न स्कूल खुलते हैं, न बाजार सुरक्षित रहते हैं, और न ही अंतरराष्ट्रीय समर्थन स्पष्ट होता है।

भारत की 25 मिनट की जवाबी कार्रवाई अगर 25 महीने तक खिंच जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

सबसे बड़ी कीमत कौन चुकाएगा?

आम आदमी। जिसका न कोई टैंक है, न मिसाइल — सिर्फ राशन की थैली है। युद्ध की आहट से पहले ही जमाखोरी शुरू हो जाती है। बाजार में अनाज गायब होने लगता है, दवाएं महंगी हो जाती हैं, और मुनाफाखोर सक्रिय हो जाते हैं। सीमाओं पर सैनिक गोली झेलते हैं, लेकिन अंदरूनी मोर्चे पर जनता भूख, महंगाई और असुरक्षा झेलती है।

हर युद्ध के साथ एक “गुप्त युद्ध” भी शुरू हो जाता है — और वह है भंडारण और जमाखोरी का युद्ध। दुकानों में आटा कम होने लगता है, दालें महंगी हो जाती हैं, गैस सिलेंडर की कालाबाजारी शुरू हो जाती है, और जो चीज़ ₹100 में मिलती थी, वह ₹200 की हो जाती है।

गोदाम भरने लगते हैं — न राशन की कमी होती है, न दवाओं की — लेकिन बाजार में चीजें गायब हो जाती हैं। चिंता अब पाकिस्तान की नहीं, चिंता अपने ही देश के उन व्यापारियों की है, जो इस समय को “सुनहरा अवसर” मानते हैं।

वे कोई दुश्मन देश के सैनिक नहीं हैं, वे यहीं रहते हैं — हमारे मोहल्लों में, कस्बों में, शहरों में — और यही सबसे बड़ी विडंबना है।

भारत के लिए अब चुनौती सिर्फ रक्षा की नहीं, बल्कि ‘विश्वास’ की भी है।

देश का नागरिक युद्ध से डरता नहीं — वह सेना पर भरोसा करता है। लेकिन जब देश के भीतर ही व्यापारिक संस्थाएं मुनाफा कमाने के लिए जनता की परेशानियों को भुनाने लगें, तब संकट केवल ‘बाहरी’ नहीं रहता। भारत को अब दो मोर्चों पर रणनीति बनानी होगी:

सेना को दुश्मन से लड़ने दें, लेकिन आंतरिक व्यवस्था को भी मुस्तैद करें।

कालाबाजारी पर रोक लगाएं। जिला प्रशासन, राज्य सरकारें और केंद्र — सभी को मिलकर सक्रिय कदम उठाने होंगे।

जनता को भरोसा दिलाएं कि राशन, दवाएं, पेट्रोल-डीजल जैसी चीजों की कोई कमी नहीं होगी।

हर जिले में एक इमरजेंसी कंट्रोल रूम होना चाहिए जहां आम लोग जमाखोरी या बढ़ी कीमतों की सूचना दे सकें।

भारत के उन तथाकथित ‘मित्र’ देशों का चेहरा भी अब साफ हो गया है, जिन्होंने हमेशा दोस्ती के दावे किए लेकिन आज पाकिस्तान को फंडिंग और समर्थन देने में कोई संकोच नहीं किया। IMF में पाकिस्तान को मंजूरी दिलाने वालों में अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और सऊदी अरब जैसे देश भी शामिल हैं — जो एक ओर भारत से व्यापार करते हैं और दूसरी ओर उसके दुश्मन को ताकत दे रहे हैं। यह सीधा-सादा दोहरा रवैया है और भारत के लिए एक चेतावनी। क्या यह भारत के साथ विश्वासघात नहीं है? भारत को अब कूटनीतिक स्तर पर भी इस पाखंड के खिलाफ खुलकर आवाज उठानी होगी।

क्या भारत-पाकिस्तान में कभी स्थायी शांति होगी?

इतिहास गवाह है कि हर युद्ध के बाद एक नया संवाद शुरू हुआ — लेकिन हर संवाद से पहले बहुत खून बहा। कारगिल युद्ध के कुछ समय पहले लाहौर बस यात्रा हुई थी। कुछ साल बाद अगस्ता बस सेवा फिर शुरू हुई, लेकिन वह भी ज्यादा दिनों तक नहीं चली। पठानकोट, पुलवामा, उरी — ये सारे मोड़ शांति के रास्ते में कांटे की तरह आए।

अब फिर वही मोड़ सामने है। और इस बार सवाल है:

क्या यह युद्ध केवल दो देशों की सरकारों का युद्ध रहेगा? या यह आम नागरिकों की आजीविका, भोजन, बच्चों की शिक्षा और घर की सुरक्षा को भी लील लेगा?

निष्कर्ष — युद्ध की सबसे बड़ी कीमत वह चुकाता है, जो युद्ध नहीं करता

भारत के लिए अब यह एक दोहरी लड़ाई है — बाहर से दुश्मन को रोकना और अंदर से अपने ही देश के लालच को। एक तरफ बंदूकें गरजेंगी, दूसरी तरफ थालियां सूनी होंगी।

इसलिए अब सिर्फ “रणनीति” की नहीं, “संवेदना” की ज़रूरत है। युद्ध की घोषणा आसान है, लेकिन उसकी चुप्पियों में सबसे ज़्यादा आहें होती हैं।

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