
ताइपे / बीजिंग / वॉशिंगटन / पेरिस:
चीन और ताइवान के बीच बढ़ते तनाव ने अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उबाल ला दिया है। अमेरिका की ओर से ताइवान पर संभावित हमले को लेकर दी गई कड़ी चेतावनी के बाद, चीन ने न सिर्फ सख्त बयानबाजी की है, बल्कि अपने पारंपरिक सहयोगी उत्तर कोरिया के जरिए अप्रत्यक्ष परमाणु दबाव भी बनाना शुरू कर दिया है। इसी बीच फ्रांस ने खुलकर चीन और उत्तर कोरिया की भाषा का विरोध किया है और ताइवान के साथ खड़े होने का ऐलान किया है।
🇺🇸 अमेरिका ने क्या कहा?
अमेरिका ने साफ किया कि यदि चीन ने ताइवान पर हमला किया, तो वह सीधे सैन्य हस्तक्षेप करेगा। अमेरिकी रक्षा विभाग ने इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अपने फौजों की तैनाती तेज कर दी है और जापान, दक्षिण कोरिया व फिलीपींस के साथ सामरिक संवाद बढ़ाया है।
व्हाइट हाउस प्रवक्ता ने कहा:
“ताइवान को धमकाने की हर कोशिश का कड़ा जवाब दिया जाएगा। लोकतंत्र की रक्षा करना अमेरिका की प्राथमिकता है।”
🇨🇳 चीन की धमकी और उत्तर कोरिया की एंट्री
चीन ने अमेरिका की चेतावनी को “सीधा उकसावा” बताया और जवाब में कहा कि:
“ताइवान चीन का अभिन्न हिस्सा है। बाहरी हस्तक्षेप हुआ तो हम चुप नहीं बैठेंगे।”
उत्तर कोरिया भी इस बयानबाजी में कूद पड़ा। उसने अमेरिका को चेतावनी दी कि अगर चीन के खिलाफ कार्रवाई की गई, तो वह सैन्य जवाब देने से पीछे नहीं हटेगा।
🇫🇷 फ्रांस का हस्तक्षेप और सख्त विरोध
फ्रांस ने पहली बार इस विवाद पर मुखर होकर कहा कि उत्तर कोरिया की धमकी अस्वीकार्य है और ताइवान पर बलपूर्वक कब्ज़ा करना अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन होगा। फ्रांस के विदेश मंत्री ने साफ कहा:
“ताइवान के मुद्दे का हल शांतिपूर्ण संवाद से ही संभव है। युद्ध और परमाणु धमकी किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं।”
फ्रांस ने संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव लाकर “एकतरफा सैन्य कार्रवाइयों पर प्रतिबंध” की बात की है। साथ ही यूरोपीय यूनियन के अन्य देशों से भी साझा रणनीति बनाने की अपील की है।
🗣️ ताइवान की प्रतिक्रिया
ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग वेन ने अमेरिका और फ्रांस का आभार जताया और कहा:
“हम लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करेंगे। कोई भी देश हमारे अस्तित्व को मिटा नहीं सकता।”
🔎 विश्लेषण: क्या ये नया वैश्विक टकराव है?
अमेरिका और फ्रांस अब ताइवान के पक्ष में खुलकर सामने आ गए हैं।
चीन और उत्तर कोरिया की मिलीजुली धमकियों ने इस पूरे क्षेत्र को युद्ध जैसे तनाव की ओर धकेल दिया है।
यूरोपीय हस्तक्षेप के कारण यह विवाद अब केवल एशिया का नहीं, वैश्विक सुरक्षा का सवाल बन चुका है।